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photo credit-- hindustantimes |
ज्योतिबा बहुत बुद्धिमान थे। उन्होंने मराठी में अध्ययन किया। वे महान क्रांतिकारी, भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक एवं दार्शनिक थे। 1840 में ज्योतिबा का विवाह सावित्रीबाई से हुआ था।
महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आंदोलन जोरों पर था। जाति-प्रथा का विरोध करने और एकेश्वरवाद को अमल में लाने के लिए ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई थी जिसके प्रमुख गोविंद रानाडे और आरजी भंडारकर थे।
उस समय महाराष्ट्र में जाति-प्रथा बड़े ही वीभत्स रूप में फैली हुई थी। स्त्रियों की शिक्षा को लेकर लोग उदासीन थे, ऐसे में ज्योतिबा फुले ने समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाए। उन्होंने महाराष्ट्र में सर्वप्रथम महिला शिक्षा तथा अछूतोद्धार का काम आरंभ किया था। उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए भारत की पहला विद्यालय खोला।
सत्यशोधक समाज की स्थापना
समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ 'सत्यशोधक समाज' नामक संस्था का निर्माण किया। वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे और सावित्रीबाई फुले महिला विभाग की प्रमुख। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद्रों और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त कराना था। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने वेदों को ईश्वर रचित और पवित्र मानने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि यदि ईश्वर एक है और उसी ने सब मनुष्यों को बनाया है तो उसने केवल संस्कृत भाषा में ही वेदों की रचना क्यों की? उन्होंने इन्हें ब्राह्मणों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लिखी गई पुस्तकें कहा।
उस समय ऐसा करने की हिम्मत करने वाले वे पहले समाजशास्त्री और मानवतावादी थे। लेकिन इसके बावजूद वे आस्तिक बने रहे। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया और चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था को ठुकरा दिया। इस संस्था ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया और शैक्षणिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मण वर्ग को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। सत्यशोधक समाज के आंदोलन में इसके मुखपत्र दीनबंधु प्रकाशन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोल्हापुर के शासक शाहू महाराज ने इस संस्था को भरपूर वित्तीय और नैतिक समर्थन प्रदान किया।
महात्मा फुले ने दलितों पर लगे अछूत के लांछन को धोने और उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने के भी प्रयत्न किए। इसी दिशा में उन्होंने दलितों को अपने घर के कुंए को प्रयोग करने की अनुमति दे दी। शूद्रों और महिलाओं में अंधविश्वास के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक विकलांगता को दूर करने के लिए भी उन्होंने आंदोलन चलाया। उनका मानना था कि यदि आजादी, समानता, मानवता, आर्थिक न्याय, शोषणरहित मूल्यों और भाईचारे पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है तो असमान और शोषक समाज को उखाड़ फेंकना होगा।
ज्योतिबा के कार्य में उनकी पत्नी ने बराबर का योगदान दिया। यद्यपि वे पढ़ी−लिखी नहीं थीं और शादी के बाद ज्योतिबा ने ही उन्हें पढ़ना−लिखना सिखाया। किन्तु इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उस समय लड़कियों की दशा अत्यंत शोचनीय थी और उन्हें पढ़ने लिखने की अनुमति नहीं थी। इस रीति को तोड़ने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला पहला विद्यालय था।
महात्मा फुले ने समाज कार्य करते हुए अनेक पुस्तकें भी लिखीं। ये सभी पुस्तकें उनके कार्य को गति प्रदान करती हैं। इनमें 'तृतीय रत्न', 'ब्रह्माणंचे कसाब', 'इशारा', 'पोवाडा−छत्रपति शिवाजी भोंसले यांचा', अस्पृश्यांची कैफि़यत' इत्यादि प्रमुख हैं। ज्योतिबा फुले ने अपने कार्य से अनेक लोगों को प्रभावित किया। यह प्रभाव उनकी मृत्यु पर्यंत भी बना रहा। डॉ0 भीमराव अंबेडकर भी उनसे काफी प्रभावित हुए और महात्मा की ही राह पर चलते हुए उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए जिनका प्रत्यक्ष परिणाम आज देखा जा सकता है।
आज भी लोग ज्योतिबा के कार्यों से प्रभावित हो रहे हैं। ज्योतिबा ने 'गुलामगिरी'− नाम की भी एक पुस्तक लिखी। वर्ष 1873 में प्रकाशित यह पुस्तक आज भी समाज में हो रहे भेदभाव पर खरी उतरती है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के दौरान पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल ने मुंबई में बराक ओबामा को यह पुस्तक भेंट स्वरूप दी और उन्हें इसका सार बताया। इससे ओबामा भी प्रभावित दिखे और भारत से अनमोल भेंट कहकर इस किताब को स्वीकार किया।
इस महान समाजसेवी ने अछूतोद्धार के लिए सत्यशोधक समाज स्थापित किया था। उनका यह भाव देखकर 1888 में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी गई थी। ज्योतिराव गोविंदराव फुले की मृत्यु 28 नवंबर 1890 को पुणे में हुई।
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